आंतरात्मिक और आध्यात्मिक शिक्षा

 

 अबतक हमारा विषय वह शिक्षा रहीं है जो संसार मे जन्म लेनेवाले प्रत्येक बच्चे को दी जा सकतीं है और जो केवल मानवीय क्षमताओं से ही संबंध रखती हैं, परंतु हमें अनिवार्य रूप मे वहीं रुक जाने की आवश्यकता नहीं । सब मानव प्राणियों मे अंदर छिपी हई एक महत्तर चेतना की संभावना मौजूद है जो उनके सामान्य जीवन की सीमा से बड़ी है और जिसकी सहायता से वे एक उच्चतर और अधिक व्यापक जीवन मे भाग लेने के अधिकारी बन सकते हैं । वास्तव में, यही चेतना सभी असाधारण व्यक्तियों मे जीवन को शासित करती है  तथा उसकी परिस्थितियों और साथ हीं इन परिस्थितियों के प्रति उनकी वैयक्तिक प्रतिक्रिया को भी व्यवस्थित करती हैं ! जो बात मनुष्य का मन नहीं जानता और नहीं कर सकता उसे वह चेतना जानती और करती है । यह उस प्रकाश के समान है जो व्यक्ति के केंद्र में चमक रहा है । इसकी किरणें बाह्य चेतना के मोटे आवरणों में से प्रसारित होत्री हैं । कुछ व्यक्तियों को इसकी उपस्थिति का एक अस्पष्ट-सा भान रहता हैं; बहुत-से बच्चे भी इसके प्रभाव के अधीन होते हैं जो कभी-कभी अत्यधिक स्पष्ट रूप से उनकी सहज-प्रेरित क्रियाओं, यहां तक कि उनके शब्दों मे भी दृष्टिगोचर होता है । दुर्भाग्यवश, माता-पिता बहुधा इसका अर्थ नहीं जानते और न हीं यह समह्मते हैं कि उनके बच्चों के अंदर कौन-सी क्रिया चल रहीं हैं । इसलिये इन घटनाएं की ओर उनकी अपनी प्रतिक्रिया भी कोई अच्छी नहीं होती और उनकी सारी शिक्षा का अर्थ ही यह रह जाता हैं कि वह बच्चे को इस क्षेत्र मे यथासंभव अचेतन बना दे, उसका सारा ध्यान बाह्य वस्तुओं पर केंद्रित कर दे तथा उसमें इन्हींको महत्त्वपूर्ण समझने का अभ्यास डाल दे । बाह्य वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रीय करना बहुत लाभदायक तो है, पर यह कार्य उचित ढंग से करना चाहिये । ये तीन प्रकार की शिक्षाएं-शारीरिक, प्राणिक तथा मानसिक-इसी सें संबंधित हैं । हम कह सकते हैं कि ये शिक्षाएं व्यक्तित्व का निर्माण करने, मनुष्य को अस्पष्ट और अवचेतन जड़ता से उबारने तथा उसे एक सुलिखित और आत्म-चेतन सत्ता बनाने के साधन हैं । अंतरात्मा की शिक्षा के द्वारा हम जीवन के सच्चे आशय, पृथ्वी पर अपने अस्तित्व के कारण तथा जीवन की खोज के लक्ष्य और उसके परिणाम के प्रश्र पर आते हैं : अपनी नित्य सत्ता के प्रति व्यक्ति का आत्म-समर्पण । इस खोज का संबंध, साधारणतया, एक गुह्य भाव तथा धार्मिक जीवन से है, क्योंकि विशेष रूप से धर्म-मत ही जीवन के इस पहल मे व्यस्त रहे हैं, पर ऐसा होना आवश्यक नहीं । ईश्वर-विषयक गुह्य विचार के स्थान पर सत्य का अधिक दार्शनिक विचार आ सकता है, पर फिर भी यह खोज सार-रूप में वही रहेगी, केवल उस तक पहुंचने का मार्ग ऐसा हो जायेगा कि अत्यधिक आग्रहशील प्रत्यक्षवादी भी इसको अपना सकेगा; क्योंकि आतरात्मिक जीवन की तैयारी के लिये मानसिक विचारों और धारणाओं का सबसे

 


अधिक महत्त्व नहीं है । महत्त्वपूर्ण बात यह हैं कि अनुभव को जीवन में लाया जाये, यह अनुभव अपने-आपमें यथार्थ शक्तिशाली होता है, यह उन सब सद्धांतों से स्वतंत्र है जौ इसके पहले, इसके साथ या इसके पीछे आते हैं, क्योंकि अधिकतर ये सिद्धांत व्याख्या--रूप हीं होते 'हैं जिसके द्वारा मनुष्य को कुछ-कुछ ज्ञान-प्राप्ति का सम हो जाता है ।  आदर्श या पूर्ण सत्ता को मनुष्य प्राप्त करना चाहता है उसे वह उस वातावरण के अनुसार, जिसमें वह उत्पन्न हुआ हैं और उस शिक्षा के अनुसार जो उसे प्राप्त हुई है, भिन्न-भिन्न नाम दे देता है । अगर अनुभव सच्चा हो तो वह सार रूप में समान हीं रहता है । भेद केवल उन शब्दों और उक्तियों में है जिनमें उसका निरूपण होता है और यह होता है उस व्यक्ति के विश्वास और मानसिक शिक्षा के अनुसार जिसको यह अनुभव प्राप्त हुआ हैं ! यह निरूपण एक निकटवर्ती वणनमात्र हैं । जैसे- जैसे अनुभव अपने-आपमें अधिकाधिक यथार्थ और सुसंबद्ध होता जाये, वैसे-वैसे इस निरूपण को भी, उत्तरोत्तर विकसित तथा यथार्थ होते जाना चाहिये । फिर भी, यदि हम आतरात्मिक शिक्षा की एक सामान्य रूप-रखा खींचना चाहें तो अंतरात्मा से हमारा अभिप्राय क्या है, इस विषय में हमें कुछ विचार अवश्य बना लेना चाहिये, चाहे वह विचार कितना ही सापेक्ष क्यों न हों । उदाहरणार्थ, यह कहा जा सकता हैं कि एक व्यक्ति की रचना उन असंख्य संभावनाओं में से किसी एक के देश और काल मे प्रसेपण के द्वारा होती है जो समस्त अभिव्यक्ति के सर्वोच्च उद्गम में गुप्त रूप सें विद्यमान हैं । यह उद्गम एकमेव विश्वव्यापी चेतना के द्वारा व्यक्ति के नियम या सत्य में मूर्त रूप धारण कर लेता है और इस प्रकार उत्तरोत्तर विकास करते झ उसकी आत्मा या चैत्य पुरुष बन जाता हैं ।

 

  मुझे इस बात पर जोर देना चाहिये कि जो कुछ संक्षेप मे यहां कहा गया है उसे न तो अंतरात्मा की पूर्ण व्याख्या कहा जा सकता है और न ही पूरे-का-पूरा विषय उम्रमें आ जाता है- अभी बहुत कुछ बाकी हैं । यह एक अति संक्षिप्त निरूपणमात्र है और इसका उपयोग व्यवहार-रूप में हो सकता है । यह उस शिक्षा का आधार बन सकती है जिस पर अब हमें विचार करना हैं ।

 

  आंतरात्मिक उपस्थिति के द्वारा हीं व्यक्ति का सच्चा अस्तित्व व्यक्ति तथा उसके जीवन की परिस्थितियों से संपर्क प्राप्त करता हैं । यह कहा जा सकता है कि अधिकांश व्यक्तियों में यह उपस्थिति अज्ञात और अपरिचित रूप मे पर्दा के पीछे से कार्य करती हो पर कुछ में यह अनुभव-गोचर होती हैं तथा इसकी को भी पहचाना जा सकता है; बहुत ही विरले लोगों में यह उपस्थिति प्रत्यक्ष रूप में प्रकट हर्ता है और नन्हींमें इसकी किया भी अधिक प्रभावशाली होती है । ऐसे लिंग ही एक विशेष विश्वास और निञ्जय के साथ जीवन में आगे बढ़ते हैं; ये हीं अपने भाग्य के स्वामी होते हैं । इस स्वामित्व को प्रान्त करने तथा अंतरात्मा की उपस्थिति के प्रति सचेतन होने के लिये ही आतरात्मिक शिक्षा के अनुशीलन की जरूरत है पर इसके

 

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लिये एक विशेष साधन, अर्थात् व्यक्ति के निजी संकल्प का होना आवश्यक है । क्योंकि अभीतक अंतरात्मा की खोज, इसके साथ तदात्मता, शिक्षा के स्वीकृत विषयों का अंग नहीं बनी है । कई ऐसी विशेष पुस्तकें हैं जिनमें इस विषय को सीखने के लिये कुछ उपयोगी निर्देश मिल जाते हैं । किन्हीं विशेष अवस्थाओं मे कुछ भाग्यशाली लोगों की किसी ऐसे व्यक्ति से भेंट भी हो सकतीं है जो उन्है मार्ग दिखाने मे समर्थ होता है तथा इस पर चलने के लिये उन्हें आवश्यक सहायता पहुंचा सकता है, पर अधिकतर यह कार्य मनुष्य को अपनी ही मौलिक प्रेरणा द्वारा करना होता हैं । यह खोज उसका व्यक्तिगत कार्य हैं तथा लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये एक महान संकल्प, दृढ़ निक्षय और अथक अध्यवसाय की विशेष आवश्यकता पड़ती है । ऐसा कहा जा सकता हैं कि प्रत्येक को अपनी कठिनाइयों मे से अपना रास्ता आप निकालना होता है । कुछ हद तक तो इस लक्ष्य को लोग जानते हैं; क्योंकि जिन्हेंने उसे प्राप्त कर लिया हैं उनमें से अधिकांश थोड़े-बहुत स्पष्ट रूप मे इसका वर्णन कर चुके हैं । पर इस खोज का सर्वोच्च महत्त्व इसकी सहज-स्वाभाविकता और सच्चाई मे है जो सामान्य मानसिक मर्यादाओं मे नहीं होती । इसीलिये, जो कोई इस साहसपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाना चाहता हैं वह पहले प्रायः, एक ऐसे व्यक्ति की खोज करता है जो इस कार्य को सफलतापूर्वक कर चुका होता है और साथ हीं जो उसे सहारा देने और रास्ता दिखाने मे समर्थ है । फिर भी, कई ऐसे एकाकी जिज्ञासु होते हैं जिनके लिये कुच सामान्य निर्देश उपयोगी हो सकते हैं ।

 

  प्रारंभ मे मनुष्य को अपने अंदर उस चीज की खोज करनी होगी जो शरीर और जीवन की परिस्थितियों से स्वतंत्र हैं, जिसका जन्म न तो उस मानसिक रचना से हुआ है  जो उसे प्राप्त हुई है, न उस भाषा से जो वह बोलता है; न उस वातावरण के अम्यासों तथा रीति-रिवाज रो जिसमें वह रहता हैं और न हीं उस देश या युग से जिसमें वह उत्पन्न हुआ है तथा जिससे उसका संबंध है । उसे, अपनी सत्ता की गहराई में, उस वस्तु को ढूंढना होता हैं जिसके अंदर व्यापकता, असीम विस्तार तथा नित्य स्थिरता का भाव है । तब वह अपने-आपको केंद्र से बाहर की उतर प्रसारित -करता हू, विशाल और व्यापक बनाता हैं; प्रत्येक वस्तु मे तथा सब प्राणियों मे निवास करने लगता है व्यक्तियों को एक-दूसरे से पृथक करनेवाली सीमाएं टूट जाती हैं । वह उनके विचारों में सोचता है, उनके संवेदनों से स्पंदित होता है, उनकी भावनाओं मे अनुभव करता है, सबके जीवन मे जीता है । जो जड़ प्रतीत होता था, वह एकाएक जीवन सें पूर्ण हो जाता है, पत्थर स्पंदित हो उठते हैं, पौधे संवेदन, इच्छा तथा दुःख अनुभव करने लगते हैं, पशु एक मूक-सी, पर स्पष्ट और व्यंजक भाषा में बोलते हैं; सब वस्तुएं एक ऐसी अद्भुत चेतना सै सजीव हो उठती हैं जो देश और काल से परे हैं । यह आतरात्मिक उपलब्धि केवल एक पक्ष हैं; इसके अतिरिक्त और भी बहुत-से हैं । ये सब मिलकर तुम्हारे अहंभाव की सीमाओं तथा तुम्हारे बाह्य व्यक्तित्व की

 

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दीवारों से, तुम्हारी प्रतिक्रियाओं की असमर्थता और तुम्हारे संकल्प की दुर्बलता से तुम्हें बाहर निकाल लाते हैं ।

 

  पर, जैसा कि मै पहले कह चुकी हूं, यहां तक पहुंचने का मार्ग लंबा और कठिन है, इनमें अनेक जाल बिछे हैं तथा कठिनाइयां हैं और इनका सामना करने के लिये एक ऐसे दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है  जो सब प्रकार की परीक्षाओं के सम्मुख टिक सके । यह एक अपरिचित प्रदेश की, एक महान ध्येय की खोज के लिये अज्ञात वन मंच से एक अन्वेषक की यात्रा के समान है । अंतरात्मा की उपलब्धि मी एक महान् खोज हैं, इसके लिये उतनी हीं निडरता और सहनशीलता की आवश्यकता है जितनी हमें नये महाद्वीपों का खोज मे होती है  । जिसने इस काम को हाथ मे लेने का निश्चय कर लिया है उसके लिये कई निर्देश उपयोगी हो सकते हैं ।

 

  पहली और शायद अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मन आध्यात्मिक वस्तुओं के विषय मे राय बनाने मे असमर्थ है  । जिन लोगों ने भी इस विषय पर लिखा है वे सब यहीं कहते हैं; पर बहुत कम लोग ऐसे हैं जो इस पर आचरण करते हैं । फिर भी इस मार्ग पर अग्रसर होने के लिये सब प्रकार की मानसिक धारणाओं ओर प्रतिक्रियाओं से बचना सर्वथा अनिवार्य है ।

 

  आराम, सुख-भोग या प्रसन्नता के लिये हर प्रकार की वैयक्तिक कामना का त्याग कर दो; बस, उन्नति के लिये प्रज्ज्वलित अग्निशिखा बन जाओ । जो कुछ तुम्हारे मार्ग में आये उसे अपने विकास के लिये मानो और तुरंत इस अपेक्षित विकास को साधित भी कर लो ।

 

  सब कार्य प्रसन्नता से करने का यत्न करो परंतु प्रसन्नता कभी तुम्हारे कार्य का प्रेरक भाव न बनने पाये ।

 

  कभी उत्तेजित, उद्विग्न या विक्षुब्ध मत होओ । सब अवस्थाओं मे पूर्ण रूप से शांत बने रहो । फिर भी सदा सजग रहो ताकि जो उन्नति तुम्है करनी है उसे तुम जान सको तथा बिना समय नष्ट किये उसे प्राप्त कर सकी ।

 

  भौतिक घटनाओं को उनके बाह्य रूपों के आधार पर अंगीकार मत करो । ये सदा हीं किसी अन्य वस्तु की, जो सत्य वस्तु हैं, परंतु जो हमारी तलीय बुद्धि की पकड़ मे नहीं आती, अशुद्ध अभिव्यक्त्ति होती है ।

 

  किसी के व्यवहार के प्रति शिकायत मत करो, जबतक तुम्हारे अंदर उक्तके स्वभाव की उस चीज को बदलने की शक्ति हीं न हो जो उसे वैसा करने को प्रेरित करती हैं; अगर तुम्हारे पास वह शक्ति है तो शिकायत करने के स्थान पर उसे बदल दो । तुम जो भी करो, अपने लक्ष्य को सदा स्मरण रखो । इस महान उपलब्धि की खोज मे कोई भी चजि बड़ी या छोटी नहीं है; सब समान रूप से महत्त्वपूर्ण है, ये इसकी सफलता मे सहायता भी पहुंचा सकतीं हैं और बाधा भी डाल सकती हैं, जैसे भोजन से पहले तुम इस अभीप्सा पर कुछ क्षण अपना ध्यान एकाग्र करो कि जो खाना तुम

 

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खाने लगे हों वह तुम्हारे शरीर के लिये उस प्रयोजनीय तत्त्व को पैदा करे जो इस महान उपलब्धि के लिये तुम्हारे प्रयत्न का ठोस आधार बनेगा तथा उसे इस प्रयत्न मे सहनशीलता और अध्यवसाय की शक्ति प्रदान करेगा ।

 

  सोने से पहले, तुम कुछ क्षण के लिये एकाग्र होकर अभीप्सा करो कि यह निद्रा तुम्हारी थकी हुई नसों को पुन: शक्ति प्रदान करे, तुम्हारे मस्तिष्क मे स्थिरता और शांति लाये, ताकि सोकर उठने के बाद तुम नये उत्साह के साथ इस महान उपलब्धि की ओर अपनी यात्रा को फिर से आरंभ कर सको ।

 

  कुछ भी करने से पहले, इस इच्छा-शक्ति पर अपना ध्यान केंद्रित करो कि तुम्हारा कार्य इस महान् उपलब्धि की ओर अग्रसर होने में तुम्हें सहायता पहुंचाये, कम-से-कम बाधक तो न बने !

 

  जब तुम बोलों, तो मुख से शब्द निकालने से पहले कम-से-कम इतनी देर तो अपने-आपको एकाग्र कर लो ताकि तुम्हारा शब्दों पर नियंत्रण रहे और वही शब्द मुख से निकले जो अनिवार्य रूप मे आवश्यक हैं, केवल वही जो इस महान उपलब्धि की ओर अग्रसर होने में किसी प्रकार भी बाधक नहीं है ।

 

  संक्षेप मे, अपने जीवन के प्रयोजन और लक्ष्य को कभी मत भूलो । इस महान उपलब्धि का तुम्हारा संकल्प सदा तुम्हारे अपर तथा जो कुछ तुम करते हो और जो कुछ तुम हो उस पर सजग रूप में विद्यमान रहे मानों यह प्रकाश का एक विशाल पक्षी है जो तुम्हारे अस्तित्व की सब गतिविधि को प्रभावित करता है ।

 

  तुम्हारे अथक और सतत प्रयत्न के फलस्वरूप सहसा एक आंतरिक कपाट खुल जायेगा और तुम एक ऐसी ज्वलंत ज्योति मे प्रवेश करोगे जो तुम्हें अमरता का आश्वासन प्रदान करेगी तथा स्पष्ट अनुभव करायेगी कि तुम सदा हो जीवित रहे हो और सदा ही जीवन रहोगे; नाश बाह्य रूपों का हीं होता है और अपनी वास्तविक सत्ता के संबंध से तुम्हें यह भी पता लगेगा कि ये रूप वस्त्रों के समान हैं जिन्हें पुराने पंडू जाने पर फेंक दिया जाता है । तब तुम सब बंधनों सें मुक्त हों जाओगे और परिस्थितियों के जिस बोझ को प्रकृति ने तुम पर लादा है तथा जिसे वहन करते हुए तुम कष्ट भोग रहे हो, उसके नीचे कठिनाई से अग्रसर होने के स्थान पर तुम--यदि इसके नीचे कुचल जाना नहीं चाहते हो तो- अपनी भवितव्यता के प्रति सचेतन होकर तथा जीवन के स्वामी बनकर सीधे, दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ सकते हो ।

 

  पर इस स्थूल देह की समस्त दासता से छुटकारा और सब प्रकार के वैयक्तिक मोह से मुक्ति पाना ही सर्वोच्च सिद्धि नहीं ३ । शिखर पर पहुंचने से पहले और कई मंज़िलों को पार करना होगा । इनके बाद कई और भी आ सकतीं हैं और आयेंगी ही जो भविष्य के द्वार खोल. देंगी । ये अगली मंज़िले हीं इस शिक्षा का विषय होगी जिन्हें मै आध्यात्मिक शिक्षा कहती हूं ।

 

  पर इस नये विषय पर आने तथा इस प्रश्र को विस्तारपूर्वक विचारने से पहले, एक
 

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बात का स्पष्टीकरण उपयोगी होगा । आतरात्मिक शिक्षा, जिसके बारे मे हम अभी कह चुके हैं, और आध्यात्मिक शिक्षा, जिसके बारे में हम अब कहेंगे, इन तने। मे भेद करना जरूरी क्यों हैं? दोनों साधारणतया ''योग साधना' ' का एक हीं व्यापक नाम पाने के कारण, आपस में मिल-जुल गयी हैं, यद्यपि इनके लक्ष्य बहुत भिन्न हैं : एक का लक्ष्य है पृथ्वी पर उच्चतर सिद्धि की प्राप्ति, जब कि दूसरी समस्त पार्थिव अभिव्यक्ति से, यहांतक कि संपूर्ण संसार से पलायन करके अव्यक्त की ओर लौट जाना चाहती हैं ।

 

  अतएव यह कहा जा सकता है कि आतरात्मिक जीवन एक ऐसा जीवन है जो अमर हैं, अनंत काल, असीम देश, नित्य प्रगतिशील परिवर्तन हैं, और बाह्य रूपों के संसार में एक अविच्छिन्न धारा है । दूसरी ओर, आध्यात्मिक चेतना का अर्थ है नित्य और अनंत में निवास करना तथा देश-काल से, सृष्टिमात्र से बाहर स्थित हो जाना । अपनी अंतरात्मा को पूर्ण रूप से जानने और आतरात्मिक जीवन बिताने के लिये मनुष्य को समस्त स्वार्थपरता का त्याग करना होगा; किंतु आध्यात्मिक जीवन के लिये अहंमात्र से मुक्त हो जाना होगा ।

 

  आध्यात्मिक शिक्षा मे यहां भी, मनुष्य का स्वीकृत लक्ष्य, उसके वातावरण, विकास तथा स्वभाव की रुचियों के -संबंध मे, मानसिक निरूपण मे, मित्र-भिन्न नाम धारण कर लेगा । धार्मिक प्रवृत्तिवाले उसे ईश्वर कहेंगे और उनका आध्यात्मिक प्रयत्न फिर इस रूपातीत परात्पर ईश्वर के साथ तादात्म्य प्राप्त करने के लिये होगा, न कि उस ईश्वर के साथ जो वर्तमान सब रूपों मे है । कुछ लोग इस 'परब्रह्म' या 'सर्वोच्च आदिकारण' कहेंगे, और कुछ 'निर्वाण'; कुछ और, जो संसार को तथ्यहीन भ्रम समझते हैं, इसे 'एक अद्वितीय सत्य' का नाम देंगे; जो लोग अभिव्यक्तिमात्र को असत्य मानते हैं उनके लिये यह 'एकमात्र सत्य' होगा । लक्ष्य की ये सब परिभाषाएं अंशत: ठीक हैं, पर हैं सब अधूरी, ये केवल सद्वस्तु के एक-एक पक्ष को हीं व्यक्त करती हैं । दद्रु भी मानसिक निरूपणों का कुछ महत्त्व नहीं; बीच की अवस्थाओं को एक बार पार कर जाने के बाद मनुष्य सदा एक हीं अनुभव पर पहुंचता हैं । जो शी हों, शुरू करने के  सबसे अधिक सफल तथा शीघ्र दद्रु जानेवाली चीज पूर्ण आत्म-समर्पण हैं । इसके साथ हीं, जिस उच्च-से-उच्च -सत्ता की मनुष्य कल्पना कर शत्रुता हे उसके प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण के आनंद से अधिक पूर्ण आनंद और नहीं है; कुछ इसे ईश्वर का नाम देते हैं और कुछ 'पूर्णता ' वहां । यदि यह समर्पण लगातार स्थिर भाव मे तथा उत्साहपूर्वक किया जाये तो एक ऐसा समय भाता है जब मनुष्य इस कल्पना ३ ऊपर उठाकर एक ऐसे अनुभव को प्राप्त कर लेता हैं जिसका वर्णन तो नहीं हो सकता, परंतु जिसका फल व्यक्ति पर प्रायः सदा एक समान होता छै । जैसे-जैसे उसका आत्म- समर्पण अधिकाधिक पूर्ण और सर्वांगीण होता जायेगा; उसके अंदर उस सत्ता के साथ एक होने की तश्त उसमें पूर्ण रूप सें मिल जाने की अभीप्सा पत्र होती जायेगी जिसे
 

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उसने समर्पण किया हैं और क्रमश: यह अभीप्सा सब विषमताओं और बाधाओं को पार कर लेगी, विशेषकर उस अवस्था मे जब इस अभीप्सा के साथ-साथ व्यक्ति मे प्रगाढ़ और सहज प्रेम भी डोर क्योंकि तब कोई भी वस्तु उसकी विजयशील प्रगति के रूप मे मार्ग मे बाधक नहीं हो सकेगी ।

 

  इस तादात्म्य मे तथा अंतरात्मा के साथ तादात्म्य मे एक मौलिक भेद है । अंतरात्मा के साथ तादात्म्य को अधिकाधिक स्थायी बनाया जा सकता है और कुछ लोगों मे यह स्थायी बन भी जाता है और जिसने इसे सिद्ध कर लिया है उसको यह कमी नहीं छोड़ता, उसके बाह्य कर्म चाहे जो भी हों । दूसरे ब्दों मे हम कह सकते हू कि यह तादात्म्य ध्यान और तन्मयता में हीं नहीं प्राप्त होता, बल्कि इसका प्रभाव मनुष्य के जीवन में प्रतिक्षण, निद्रा मे और साथ ही जाग्रत् अवस्था में भी अनुभव किया जाता है ।

 

  इसके विपरीत, समस्त बाह्य रूपों से मुक्त्ति, रूपातीत सत्ता सें तादात्म्यता अपने- आपमें स्थिर नहीं रह सकतीं; क्योंकि यह स्वभावत: हा स्थूल रूप के नाश का कारण बन जायेगी । कुछ परंपरागत गाथाएँ कहती हैं कि यह नाश पूर्ण तादात्म्य स्थापित होने के बीस दिन के भीतर हीं अवश्यमेव हो जाता हैं । तथापि ऐसा होना आवश्यक नहीं हैं, और यह अनुभव चाहे क्षणिक हीं हो, चेतना में ऐसे परिणाम उत्पन्न कर देता है जो कभी नहीं मिटते और जो सत्ता के सब स्तरों, आंतरिक और बाह्य दोनों, पर प्रतिक्रियाएं पैदा करते हैं । और एक बार तादात्म्य स्थापित कर लेने के बाद इसे इच्छानुसार पुन: प्राप्य किया जा सकता है, पर एक शर्त पर कि व्यक्ति उन्हीं अवस्थाओं की फिर से लाना जानता हो ।

 

   निराकार में लीन हो जाना वह सर्वोच्च मुक्ति है जिसे प्राप्त करने की इच्छा केवल वही लोग करते हैं जो इस जीवन से छुटकारा पाना चाहते हैं, क्योंकि. यह उन्हैं अब और आकर्षित नहीं करता । वे संसार के वर्तमान रूप से संतुष्ट नहीं हैं, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं । पर यह एक ऐसी मुक्ति है जो संसार को जैसा वह है वैसा ही छोड़ देती है और दूसरों के सुख-दुःख मे कोई सहायता नहीं पहुंचाती । यह अंग लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकती जो एक ऐसे सुख का उपभोग करना नहीं चाहते जिसके वे अकेले या प्रायः अकेले ही भोक्ता होते हैं । ये लोग तो एक ऐसे संसार का स्वप्न देखते हैं जो इसकी वर्तमान अव्यवस्था और सामान्य दुःख-दैन्य के पीछे छुपे हुए प्रकाशपूर्ण वैभव के अधिक योग्य हो । वे चाहते हैं कि जिन आश्चर्यों को उन्होंने अपनी आंतरिक गवेषणा मे उपलब्ध कर लिया है उनसे दूसरों को लाभ पहुंचाये । और यह वे कर भी सकते हैं, क्योंकि वे अब अपने आरोहण के शिखर पर पहुंच गये हैं ।

 

   नाम और रूप की सीमाओं के परे से एक नयी शक्ति का आवाहन किया जा सकता ३, चेतना की उस शक्ति का जिसकी अभिव्यक्ति अभी नहीं हुई है और जो, प्रकट होकर, वस्तुओं के क्रम की बदलने मे समर्थ होगी तथा एक नये जगत् को

 

 

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जन्म देगी । क्योंकि दुःख, अज्ञान तथा मृत्यु की समस्या का हल यह नहीं हैं कि व्यक्ति सांसारिक दुखों से बचने के लिये निर्वाण द्वारा अव्यक्त मे मिल जाये, और न हीं सृष्टि के पूर्ण तथा अंतिम रूप से स्रष्टा मे लौट जाने से-जो संदिग्ध है- समष्टि का वैध दुःख सै छुटकारा हो सकता हैं । यह तो विश्व का दुःख दूर करने के लिये विश्व को ही मिटा देना हुआ । इस समस्या का हल जडू-तत्त्व के रूपांतर, एक ऐसे पूर्ण रूपांतर मे हैं जिसे साधित करने के लिये प्रकृति पूर्णता की ओर अपने विकास की युक्त्तियुक्त ऊर्ध्वमुख यात्रा को जारी रखेगी जैसा कि उसने अबतक रखा है और इससे एक नयी जाति का जन्म होगा । इसमें और मनुष्य मे वैसा हीं आपेक्षिक संबंध होगा जैसा मनुष्य और पशु मे है । वह जाति पृथ्वी पर एक नयी शक्ति, नयी चेतना तथा नये बल को अभिव्यक्त करेगी । और तभी एक नयी शिक्षा का आरंभ होगा जिसे हम अतिमानसिक शिक्षा कह सकते हैं; यह, अपनी सर्वसमर्थ क्रिया से, व्यक्तियों की चेतना को हीं प्रभावित नहीं करेगी, वरन उस तत्त्व को भी प्रभावित करेगी जिससे हैं बने हैं तथा उस वातावरण को भी जिसमें वे रहते हैं ।

 

  जिन शिक्षाओं के बारे में हम पहले कह चुके हैं और जो सत्ता के विभिन्न अंगों की ऊर्ध्वमुखी गति के द्वारा नीचे सें अपर की ओर विकसित होती हैं, उनके विपरीत अतिमानसिक शिक्षा की विकास-क्रिया ऊपर से नीचे की ओर चलेगी, इसका प्रभाव सत्ता की एक अवस्था से दूसरी मे व्याप्त होता जायेगा जबतक कि वह अंतिम, अर्थात् भौतिक अवस्था तक न पहुंच जाये । भौतिक अवस्था का रूपांतर प्रत्यक्ष रूपमें तभी दिखायी देगा जब सत्ता की आंतरिक अवस्थाएं काफी अच्छी तरह रूपांतरित हों चुकी होगी । इसलिये अतिमानस की उपस्थिति को स्थूल रूपों द्वारा समह्मने का प्रयत्न सर्वथा अनुचित हैं, क्योंकि ये रूप तो सबसे अंत में बदलते हैं जब कि अतिमानसिक शक्ति व्यक्ति में बहुत पहले से कार्य कर रही होती है । भौतिक जीवन में तो इसका प्रभाव बाद मे हीं दृष्टिगोचर होता हैं ।

 

  संक्षेप मैं यह कहा जा सकता है कि अतिमानसिक शिक्षा के फलस्वरूप केवल मानव प्रकृति का उत्तरोत्तर विकास ही नहीं होगा और न हीं केवल उसकी सुप्त शक्तियां हीं दिन-दिन बढ्ती जायेगी, बल्कि प्रकृति का अपना और साथ-हीं-साथ संपूर्ण सत्ता का भी रूपांतर हो जायेगा । प्राणियों की एक योनि का नया आरोहण होगा, मानव से ऊपर अतिमानव की ओर जिससे अंत मे पृथ्वी पर दिव्य जाति का आविर्भाव होगा ।

 

('बुलेटिन' फरवरी, १९५२)

 

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